जी भर के देख लू तुझे
या की आंखे बंद रखु
समझ में न आये मुझे
मै कुछ कहू की न कहू
चल रही है सर्द हवा
हिल रहे है लैब तेरे
ऐसे में बता कैसे
मै कुछ कहू की न कहू
कुछ कहू तो क्या कहू
कुछ न कहू तो कैसे
लोग पड़ रहे ग़ज़ल है
मै कुछ कहू की न कहू
उठती झुकती नज़रे तेरी
कहकशा या शामे गम
रुबाई है या नज़्म कोई
मै कुछ कहू की न कहू
रौशनी की लौ भी जब
थरथरा कर बुझ गई
कापं गई रूह मेरी
मै कुछ कहू की न कहू
अधखुली चिलमन से जब
महफ़िल में महताब आई
लोग मुआजने लगे
मै कुछ कहू की न कहू
भोर की पहली पहर
जश्न की आखिरी दौर में
उठकर तू चल दी तो
मै कुछ कहू की न कहू
हर एक नज़र तेरी ओर
मुड़कर तू जब देखी मुझे
लगा की चलो ठीक ही है
किऊ कर अब मै कुछ भी कहू
सैकत
रविवार, 10 मई 2009
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2 टिप्पणियां:
aapne kuchh kaha, khamoshi todi. bakwas?
सुन्दर प्रस्तुति , बधाई.
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें , आभारी होऊंगा .
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