रविवार, 10 मई 2009

मुझे कुछ कहना है ..........

जी भर के देख लू तुझे
या की आंखे बंद रखु
समझ में न आये मुझे
मै कुछ कहू की न कहू

चल रही है सर्द हवा
हिल रहे है लैब तेरे
ऐसे में बता कैसे
मै कुछ कहू की न कहू

कुछ कहू तो क्या कहू
कुछ न कहू तो कैसे
लोग पड़ रहे ग़ज़ल है
मै कुछ कहू की न कहू

उठती झुकती नज़रे तेरी
कहकशा या शामे गम
रुबाई है या नज़्म कोई
मै कुछ कहू की न कहू

रौशनी की लौ भी जब
थरथरा कर बुझ गई
कापं गई रूह मेरी
मै कुछ कहू की न कहू

अधखुली चिलमन से जब
महफ़िल में महताब आई
लोग मुआजने लगे
मै कुछ कहू की न कहू

भोर की पहली पहर
जश्न की आखिरी दौर में
उठकर तू चल दी तो
मै कुछ कहू की न कहू

हर एक नज़र तेरी ओर
मुड़कर तू जब देखी मुझे
लगा की चलो ठीक ही है
किऊ कर अब मै कुछ भी कहू

सैकत





चाहत

ये बादल ज़रा धीरे से सरकना अभी
मेरा चाँद सोया है अभी - अभी
ये नजदीकिया टूट जायेगी
गर वो जाग जायेगी अभी

नीद से सिमटी है वो मेरे सिने से
गेसूं लिपटे है उसके गालो से
अधरों से अधरों की दुरी बस कुछ ही दूर
ऐसे में उसे जगाना न अभी

गर नीद मुझे भी आ जाती
ये नजदीकिया और बढ जाती
सांसे टकरातीं सांसो से तो बस
सारी दुरिया मिट जाती अभी

सारी रात गुजर जाने दो यु ही
वक्त को ठहर जाने दो कही '
इस रात का कभी सुबह न हो
बस यही एक चाहत है अभी

सैकत

रविवार, 19 अप्रैल 2009

पहचान

पेशानी के बल छुपाता हूँ तो हाथों के नस दीखते है
ये उम्र नही दर्द का तकाजा है यारो
जिसे मिटाने चला था अपनी जिन्दगी से
आज वो ही मेरा पहचान है यारो ।

तुम मेरे साथ रहो तो सम्वल कर रहना
ये रोग कुछ अलग सा है यारो
कल चला था तो एक कारवा था पीछे
आज बस साया साथ देता है यारो

यारो का यार बनकर भी देखा था कभी
नसीब में दुश्मनी ही मिला यारो
आज भी थाम लूँगा ढहते रिश्तो को
कभी मेरा हाथ तो थामकर देखो यारो

सैकत

शनिवार, 24 जनवरी 2009

मोबाईल ........

मोबाईल के सुइच पे टिके रिश्ते
ऑन होते ही इधर हम उधर तुम
सेकडों मील की दूरियां मीत जाती है पल में
ऑन होते ही इधर हम उधर तुम
कितनी पयार भरी बाते हो जाती है झट से
ऑन होते ही इधर हम उधर तुम
कुछ बाते अनकही भी रह जाती है
ऑन होते ही इधर हम उधर तुम
दूर रहकर भी दो दिल मिलते है पलपल
ऑन होते ही इधर हम उधर तुम
ख्वाबो को हकीकत में बदला किया
ऑन होते ही इधर हम उधर तुम
महल से लेकर किला तक बना लिया
ऑन होते ही इधर हम उधर तुम
किसे पता था नॉट रीचेबल भी हो जायेंगे
ऑफ़ होते ही इधर हम उधर तुम

सैकत

सोमवार, 12 जनवरी 2009

शनिवार, 29 नवंबर 2008

कफ़न .........

ये जाने जा तू चली दूर एक सुराब की तरह
मै महकता रहा तेरे दिल में एक हेना की तरह
मेरी चाहत ने रंग लाई या ना लाई तू समझ
मैंने तो प्यार किया है तुझसे एक फ़लसफा की तरह

कोई गाया तुझे ग़ज़ल तो कोई गीत की तरह
मैंने तो पड़ा है तुझे एक आयात की तरह
युही प् लेना तुझे कोई मुश्किल तो ना था
मैंने चाहा है तुझे ज़िन्दगी में एक धड़कन की तरह

हर कोई मिलता रहा तुझसे हमसफ़र की तरह
मै जब भी मिला तुझसे मिला अजनबी की तरह
दिन तो दिन जब रात को भी नीद हुई गूम
मैंने ओड़ लिया अपने ख्वाबों को एक कफ़न की तरह

सैकत


सोमवार, 24 नवंबर 2008

तू ..................


अमावस में भी पूनम का रात लगे है तू

रात तो रात दिन को भी चाँद लगे है तू

अपनी जलन में जल जल कर देखा जो तुझे मै

जिन्दगी के अंधेरे में जुगनू लगे है तू


तपती मरुभूमि में चंचल नदी लगे है तू

पतझर के मौसम में घना पेड़ लगे है तू

हजारों के बीच में जो तुझे छूप के देखा मै

उस भीड़ में भी सबसे जुदा लगे है तू


अंतहीन सफर का एक लक्ष लगे है तू

भटकने के क्षन में नई दिशा लगे है तू

पता लेकर अपनों को धुंडने जो निकला मै

मेरे अपनों के इस शहर में बस अपना लगे है तू
कैसे बताऊँ लोगो को की क्या क्या लगे है तू
जीबन के बंद कमरे का दस्तक लगे है तू
जब अपने सिरहाने पे मौत को देखा मै
सच कहू तो सच में अपनी जान लगे है तू


सैकत