जी भर के देख लू तुझे
या की आंखे बंद रखु
समझ में न आये मुझे
मै कुछ कहू की न कहू
चल रही है सर्द हवा
हिल रहे है लैब तेरे
ऐसे में बता कैसे
मै कुछ कहू की न कहू
कुछ कहू तो क्या कहू
कुछ न कहू तो कैसे
लोग पड़ रहे ग़ज़ल है
मै कुछ कहू की न कहू
उठती झुकती नज़रे तेरी
कहकशा या शामे गम
रुबाई है या नज़्म कोई
मै कुछ कहू की न कहू
रौशनी की लौ भी जब
थरथरा कर बुझ गई
कापं गई रूह मेरी
मै कुछ कहू की न कहू
अधखुली चिलमन से जब
महफ़िल में महताब आई
लोग मुआजने लगे
मै कुछ कहू की न कहू
भोर की पहली पहर
जश्न की आखिरी दौर में
उठकर तू चल दी तो
मै कुछ कहू की न कहू
हर एक नज़र तेरी ओर
मुड़कर तू जब देखी मुझे
लगा की चलो ठीक ही है
किऊ कर अब मै कुछ भी कहू
सैकत
रविवार, 10 मई 2009
चाहत
ये बादल ज़रा धीरे से सरकना अभी
मेरा चाँद सोया है अभी - अभी
ये नजदीकिया टूट जायेगी
गर वो जाग जायेगी अभी
नीद से सिमटी है वो मेरे सिने से
गेसूं लिपटे है उसके गालो से
अधरों से अधरों की दुरी बस कुछ ही दूर
ऐसे में उसे जगाना न अभी
गर नीद मुझे भी आ जाती
ये नजदीकिया और बढ जाती
सांसे टकरातीं सांसो से तो बस
सारी दुरिया मिट जाती अभी
सारी रात गुजर जाने दो यु ही
वक्त को ठहर जाने दो कही '
इस रात का कभी सुबह न हो
बस यही एक चाहत है अभी
सैकत
मेरा चाँद सोया है अभी - अभी
ये नजदीकिया टूट जायेगी
गर वो जाग जायेगी अभी
नीद से सिमटी है वो मेरे सिने से
गेसूं लिपटे है उसके गालो से
अधरों से अधरों की दुरी बस कुछ ही दूर
ऐसे में उसे जगाना न अभी
गर नीद मुझे भी आ जाती
ये नजदीकिया और बढ जाती
सांसे टकरातीं सांसो से तो बस
सारी दुरिया मिट जाती अभी
सारी रात गुजर जाने दो यु ही
वक्त को ठहर जाने दो कही '
इस रात का कभी सुबह न हो
बस यही एक चाहत है अभी
सैकत
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